Kapalkundala (Bangla Novel) in Hindi कपाल कुण्डला (बंगला उपन्यास) by Bankim Chandra Chattopadhyay by Bankim Chandra Chattopadhyay

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कपालकुंडला बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की एक अत्यंत प्रसिद्ध और प्रारंभिक उपन्यास रचना है, जिसे 1866 में प्रकाशित किया गया था। यह उपन्यास प्रेम, नैतिकता, समाज और स्त्री की अस्मिता पर आधारित एक गहन भावनात्मक कथा है। इसका शीर्षक पात्र ‘कपालकुंडला’ एक रहस्यमयी, स्वतंत्र और वन में पली-बढ़ी युवती है, जो सभ्य समाज से पूरी तरह अछूती है और एक तांत्रिक द्वारा पाली जाती है। कहानी की शुरुआत नवकुमार नामक युवक से होती है, जो जंगल में भटक जाता है और वहाँ उसकी भेंट कपालकुंडला से होती है। दोनों के बीच प्रेम विकसित होता है और वे विवाह करते हैं। लेकिन जब कपालकुंडला नवकुमार के साथ सभ्य समाज में लौटती है, तो उसके लिए सामाजिक जीवन, रीति-रिवाज़ और मानसिक बंधन असहनीय प्रतीत होते हैं। उसकी स्वतंत्र आत्मा और नैतिक दृष्टिकोण बार-बार टकराते हैं समाज की रूढ़ियों से। तांत्रिक का प्रतिशोध, प्रेम की पेचीदगियाँ और आत्म-त्याग की महत्ता इस उपन्यास को एक भावनात्मक, नैतिक और सामाजिक विमर्श में बदल देती है। बंकिमचंद्र की भाषा में काव्यात्मकता और भावनात्मक तीव्रता है, जो पाठक को कपालकुंडला की त्रासदी में गहराई से बाँध लेती है। कपालकुंडला केवल एक प्रेमकथा नहीं, बल्कि एक स्त्री की आत्मा, स्वतंत्रता और संघर्ष की सशक्त प्रस्तुति है। यह उपन्यास उस समय के बंगाली समाज और नैतिक दुविधाओं का अद्भुत चित्रण करता है, जो आज भी प्रासंगिक हैं।

About the author

बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय (1838–1894) बंगला गद्य साहित्य के उन्नायक और भारत के सांस्कृतिक नवजागरण के अग्रदूत माने जाते हैं। वे पहले भारतीय आईसीएस अधिकारी भी थे। उनके उपन्यासों में भारतीय समाज, नैतिकता और राष्ट्रभक्ति का गहन चित्रण मिलता है। कपालकुंडला, आनंदमठ और बिषवृक्ष उनकी कालजयी कृतियाँ हैं। उनका लिखा वंदे मातरम् गीत भारत की राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक बन चुका है।

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