आज गजल का मसला क्या है उर्दू गजल पढ़ने वाले लाख-सवा लाख हैं तो उसी उर्दू गजल को देवनागरी लिपि में, गजल गायकी में, जिन्दगी की गुफ्तगू में हिन्दुस्तान-पाकिस्तान क्या दुनिया के मुख्तलिफ़ हिस्सों में, करोड़ों-करोड़ों हैं। इस बड़ी ताक़त का अन्दाजा हमारे उन किताबी नक़्क़ादों को नहीं हो रहा है, जो आज की ग़जल को फ़ारसी ग़जल की उतरन समझते हैं। मेरा खयाल है उर्दू के ऐसे किमखुरदा अल्फ़ाज नासेह, जाहिद वाईज, दारोरसन, चारागर, ईसा नफ़स, क़फ़स, सैयाद, गुलचीं, कावे-कावे वयक्कफ़-बुरदन, सददिल जैसे 50 अल्फ़ाज के बजाय हजारों जिन्दगी के अल्फ़ाज़ को बरतते हैं। इस बोली जाने वाली जदीद लफ़्जीयात का बड़ा हिस्सा ग़ज़ल की जबान बनता जा रहा है। हमारे अहद में सच्ची ग़ज़ल के दो दुश्मन थे एक तो यही, जिनका जिक्र हो रहा है यानी उर्दू को अरबी और फ़ारसी की बाँदी समझने वाले और दूसरे मुशायरों में नाचने और गाने वाले फ़ारसी और अरबी के ये ग़ालिब, अहसासे-कमतरीं में मुब्तिला जब मुशायरे में बुलाए जाते हैं तो सर के बल जाते हैं और गालियाँ बकते वापस आते हैं और दूसरी तरफ़ मुशायरे को क़व्वाली की महफिल समझने वाले क़व्वाल और नौटंकी का बदल बनाने वाले अदाकार। न वो शाइर हैं, न ये शाइर हैं।