Sarvochch Lakshya

· Vani Prakashan
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सर्वोच्च लक्ष्य में भारत की विदेशी गुप्तचर एजेंसी अनुसन्धान और विश्लेषण विंग यानी 'रॉ' के पूर्व प्रमुख विक्रम सूद ने ‘आख्यानों' में बताने का प्रयास किया है कि कैसे दुनिया के कई राष्ट्र अपने घर और बाहर की दुनिया में सामाजिक आख्यानों या राजनीतिक मानचित्रों को गढ़ने, उन्हें जीवित रखने और नियन्त्रित करने की राजनीति करते हैं। साथ ही, समय-समय पर उनकी ताक़त और स्थिति को बढ़ाने-घटाने और बदलने का षड्यन्त्र किया जाता है। इस काम में गुप्तचर एजेंसियों की अपरिहार्य रूप से महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। ये एजेंसियाँ शासन कला (Statecraft) का ज़रूरी उपकरण होती हैं।

यह क़तई आवश्यक नहीं कि किसी देश का आख्यान सच पर ही आधारित हो लेकिन आख्यान विश्वसनीय प्रतीत हो, यह ज़रूरी है। आख्यान का एक अर्थ और अपेक्षित उद्देश्य हो, यह भी उतना ही ज़रूरी है। वीसवीं सदी के अधिकांश काल में गुप्तचर एजेंसियों ने अपने देशों के एजेंडों के अनुकूल आख्यानों को गढ़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है, और इसे मूर्त रूप देने में साहित्य, इतिहास, नाटक, कला, संगीत और सिनेमा जैसे कारगर उपकरणों की मदद ली है। झूठी ख़बरों और भ्रामक सूचनाओं को फैलाने, जनभावनाओं को उकसाने की अपनी अपरिमित क्षमता के कारण आज सोशल मीडिया आख्यानों को तोड़ने-मरोड़ने, उसका विरोध करने या उसमें बाधा पहुँचाने का एक सशक्त माध्यम बनकर उभरा है।

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‘यदि वैश्विक स्वार्थों वाला कोई ताक़तवर देश दुनिया में अपने वर्चस्व को बनाये और बचाये रखना, और शक्ति के दूसरे वैकल्पिक केन्द्रों को उभरने से रोकना चाहता है तो इसके लिए यह ज़रूरी है कि वह बाक़ी दुनिया को अपनी झूठी सच्ची कहानी सुनाने की कला में निष्णात हो। सबसे पहले उस देश को दुनिया को अपनी कहानी सुनानी होती है, फिर हालात के मुताबिक वह कहानी अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग तरीक़ों से दोहरानी होती है। इस कहानी में सरकार द्वारा गढ़े हुए अनेक झूठ शामिल होते हैं बल्कि यह कहना ज़्यादा ठीक होगा कि झूठ इस कहानी की बुनियादी खुराक होती है जिसे बाद में कई दूसरी झूठी कहानियों के सहारे ज़िन्दा रखा जाता है। उसके बाद इतिहास में जो दूसरी कहानियाँ जन्म लेती हैं, वे दरअसल उसी मूलकथा की प्रतिक्रियाएँ होती हैं...'

'आख्यानों का जन्म और अनुकूल अवधारणाओं की रचना कोई स्वाभाविक प्रक्रिया का परिणाम नहीं होती। इन सबके पीछे एक सोची-समझी नीति और कार्य योजना होती है, जिसमें समय-समय पर बदलाव लाया जाता है। अपने बारे में किसी राजनीतिक अवधारणा को स्थापित करने के लिए उस देश का राजनीतिक दबदबा ज़रूरी है, ताकि प्रतिद्वन्द्वी अथवा शत्रु देश के जन असन्तोष का अपने पक्ष में सकारात्मक उपयोग किया जा सके। कई बार तो इन तौर-तरीक़ों का इस्तेमाल वह देश अपने मित्र और सहयोगी देशों की जनता को प्रभावित करने के लिए भी करता है...'

'लम्बे समय तक भारतीय आख्यान और इससे जुड़ी अवधारणाएँ कहीं और से संचालित होती रही हैं। इस व्यवस्था में अब बदलाव की ज़रूरत है। अब इन्हें यूरोप, अमेरिका या कहीं और बैठकर निर्धारित नहीं किया जा सकता है। भारत को अब उन आख्यानों की आवश्यकता है जिन्हें स्वयं उसने अपने लिए गढ़ा हो। हमें याद रखना होगा कि पश्चिम के नज़रिये में कभी कोई बदलाव सम्भव नहीं है। अपनी सर्वव्यापकता और श्रेष्ठता सम्बन्धी छवि के साथ वह कोई समझौता नहीं करेगा बल्कि अपनी छवि को बचाये रखने के लिए ज़रूरत पड़ने पर नये हथकण्डे आज़माने से भी नहीं हिचकेगा। जिस दिन हम अपने लक्ष्य में सफल होंगे, उस दिन पश्चिमी देश स्वतः चलकर हमारे दरवाज़े पर आयेंगे...'

'हमें अपनी नियति को नियन्त्रित करने के लिए अपना आख्यान भी खुद ही स्थापित करना होगा।'

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विक्रम सूद पेशे से एक गुप्तचर अधिकारी रहे हैं। इकत्तीस वर्षों के सेवाकाल के बाद मार्च 2003 को 'रॉ' के प्रमुख के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद सम्प्रति वे नयी दिल्ली स्थित एक जननीति विचार संस्थान ‘ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन' में सलाहकार हैं। सुरक्षा, विदेश सम्बन्धों और सामरिक विषयों पर लिखे उनके वैचारिक आलेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और समाचार-पत्रों में निरन्तर प्रकाशित होते रहे हैं। सुरक्षा, चीन, सूचना तन्त्र और भारत के पड़ोसी देशों से सम्बन्धित विविध विषयों पर विगत कुछ वर्षों से लिखी गयी पुस्तकों में भी उनके अनेक आलेख अध्यायों के रूप में शामिल हैं। उनकी लिखी पुस्तक दी अनएंडिंग गेम : अ फॉर्मर रॉ चीफ़्स इनसाइट इनटू एस्पायनेज 2018 में प्रकाशित हो चुकी है।

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