Shasiton Ki Rajniti

· Vani Prakashan
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About this ebook

पार्थ चटर्जी की यह रचना ‘शासितों की राजनीति’ लोकतन्त्र की बनावट और इस व्यवस्था में शासित होने वाली जनता के बीच बने विरोधाभास को विश्लेषित करती है। भारतीय राजनीति की यह कालजयी रचना भारतीय होती हुई राजनीतिक सिद्धान्त का एक घोषणापत्र भी है। पार्थ चटर्जी के मुताबिक़, आधुनिक पश्चिमी समाजों के तजुर्बां पर आधारित पॉलिटिकल थ्योरी के लिए पूरा समाज ही नागरिक समाज है। लेकिन भारत के लोकतान्त्रिक ज़मीन पर यह कथन कारगर साबित नहीं होता है। क्योंकि समाज का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जो आधुनिकता और नागरिकता के दायरे के बाहर ही रह जाता है। जिनके लिए पार्थ चटर्जी राजनीतिक समाज की अवधारणा का प्रयोग करते हैं। पार्थ चटर्जी की इस अवधारणा ने लोकप्रिय सम्प्रभुता का विचार ही परिवर्तित कर दिया है।


राष्ट्र का आधुनिक रूप सार्वभौमिक और विशिष्ट दोनों है। सार्वभौमिक आयाम का प्रतिनिधित्व करते हुए सबसे पहले, आधुनिक राज्य में सम्प्रभुता के मूल ठिकाने की शिनाख़्त लोगों के विचार से की जाती है। एक राष्ट्र द्वारा गठित राज्य में नागरिकों के विशिष्ट अधिकारों को सुनिश्चित करके इसे साकार रूप दिया जा सकता है। इस प्रकार, राष्ट्र-राज्य आधुनिक राज्य का विशेष और सामान्य रूप बन गया। आधुनिक राज्य में अधिकारों के बुनियादी ढाँचे को स्वतन्त्रता और समानता के दोहरे विचारों द्वारा परिभाषित किया गया था। लेकिन स्वतन्त्रता और समानता अक्सर विपरीत दिशाओं में खींची जाती हैं। इसलिए, दोनों के बीच मध्यस्थता करनी पड़ी, समुदाय की जगह वह थी जहाँ विरोधाभासों को पूरी बिरादरी के स्तर पर हल करने की कोशिश की जाती थी। सम्पत्ति का आयाम कमोबेश उदार हो सकता है और समुदाय के आयाम के साथ कमोबेश समुदायवादी हो सकते हैं। लेकिन यहाँ सम्प्रभु और सजातीय राष्ट्र-राज्य की विशिष्टता के भीतर आधुनिक नागरिकता के सार्वभौमिक आदर्शों को महसूस किया जाना अपेक्षित था।



About the author

पार्थ चटर्जी सेंटर फ़ॉर स्टडीज़ इन सोशल साइंसेज, कोलकाता में लम्बे समय तक प्रोफ़ेसर और निदेशक रहने के बाद वर्तमान में मानद प्रोफ़ेसर की हैसियत से संस्थान से जुड़े हुए हैं। पार्थ चटर्जी के काम में एकमुश्त राजनीतिक सिद्धान्त और इतिहासकार दोनों का मिश्रण देखा जा सकता है। उनके काम ने पिछले तीन दशकों में दक्षिण एशिया की राजनीति, राज्य और राष्ट्रवाद के त्रिकोण पर ख़ासा असर छोड़ा है। वे सबाल्टर्न स्टडीज़ के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं। उनके द्वारा लिखित बीस से भी ज़्यादा किताबें उनके बहुआयामी काम की झलक देती हैं। 'राजनीतिक समाज' का उनका तर्क भारतीय राजनीति में उन वर्गों को राजनीति का हिस्सा बनाता है जो अब तक केवल भीड़ या जनसंख्या के रूप में ही देखे और समझे गये थे। उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं—‘नैशनलिस्ट थॉट इन द कोलोनियल वर्ल्ड’ (1986), ‘नेशन एंड इट्स फ़्रैगमेंट्स’ (1993), ‘द ब्लैक होल ऑफ़ एम्पायर’ (2012), ‘द ट्रुथ एंड लाइज ऑफ़ नेशनलिज़्म’ (2022)।


कुँवर प्रांजल सिंह

राजनीति-विज्ञान विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं। उत्तर भारत के कृषकों और मज़दूरों के इतिहास, भाषा, राजनीति और लोकतन्त्र पर उनके लेख 'प्रतिमान', 'तद्भव', 'वागर्थ', 'मधुमती', 'सामाजिक विमर्श' (सेज), 'मध्य प्रदेश सामाजिक विज्ञान अनुसन्धान जर्नल' में प्रकाशित हैं उनके कई लेख विभिन्न विद्वानों द्वारा सम्पादित किताबों में प्रकाशित हो चुके हैं। उन्हें रवीन्द्रनाथ टैगोर फ़ेलोशिप के लिए भी चयनित किया गया था। अभी वर्तमान में सबाल्टर्न और नागरिकता के सम्बन्धों पर शोध कर रहे हैं।


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