PAULVATEVARLA GAON

· MEHTA PUBLISHING HOUSE
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एखादीच रिकामी होडी किनाNयाला. संथ पाण्यावरून पक्षी या तीरावरून त्या तीराकडे उडतात. दुपार कलते. थोडी थंड हवा सुटते. कदाचित पाऊस येईलही... हे तिच्या मनात राहून गेलेलं गाव तिलाही आता इतक्या काळानंतर जसंच्या तसं सापडणार नाही हे तिला कळलं. आता हे पाणी संथ होतं. पण अशाही वेळा असतातच न! की जेव्हा हे बेभान होतं, आपले तट सोडून सैरावैरा धावतं. त्या पाण्याला मग कुणीही कळत नाही. त्या वेळी ते पाणी नसतंच... प्रलयच असतो. तो प्रलय केवळ पाण्यातच शिरत नाही. तो मस्तकातच भिनत जातो. या सगळ्यात माणसाच्या इच्छा अनिच्छेचा सन्मान कुठला! 

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