भौतिक विकास की चुधियाती दुनिया में हम उत्तरोत्तर असभ्य हो रहे हैं। रक्तपात की खबरों से सने अखबार रोज आईना दिखाते हैं। पर अफसोस, दिलो- दिमाग कुंद और संवेदनहीन होता जा रहा है। कारण हमारा अपनी संस्कृति से विमुख होना है। संस्कृति की कोख में ही सभ्यता पलती है। स्मारक, हवेलियाँ, इमारतें हमारी सांस्कृतिक विरासत हैं, जिनके झरोखों से इतिहास झाँकता है, जिनकी आबोहवा में कहानियाँ तैरती हैं। इनकी खामोशी और चहल-पहल में कल तथा आज के अनगिनत फसाने पैबस्त हैं।
यह उपन्यास पुरानी दिल्ली की तंग गलियों में बसी एक भव्य हवेली के जीवन को बयाँ करता है, जो कभी पुरानी तहजीब और रवायतों का पल्लू थामे अपने वैभव पर गुमान किया करती थी पर वक्त के थपेड़ों से अपना वजूद खो चुकी है; आज कानों में उसकी सिसकियाँ सुनाई देती हैं।
लेखिका ने उसके बाशिंदों की चित्र- विचित्र कथा के व्याज से पुरानी दिल्ली की बदलती रूह, रस्मो-रिवाज, अच्छे- बुरे हालात और बनती-बिगड़ती इनसानी फितरत की स्याह-सफेद तसवीरें पेश की हैं। साथ ही निर्माण और ध्वंस का सनातन चक्र मानव विकास-यात्रा की अनिवार्य प्रक्रिया है-यह भी दरशाया है।
- सूर्यबाला