Anant Mann - Jeevan ke Anubhav ki Kavya Yatra

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कविता, कहानी या उपन्यास आदि के माध्यम से जो भी अभिव्यक्ति होती है, वह स्वयं और समाज दोनों की परिस्थितिजन्य घटनाओं से प्रभावित होकर लिखा जाता है। कवि-हृदय समाज में जो देखता है, उसी का चित्रण अपनी रचनाओं के माध्यम से करता है। साहित्य समाज का दर्पण और दर्शन होता है! मेरा कविता लिखना मेरे अनुभव का प्रस्तुतीकरण है! मेरा अपना बचपन गांव की पृष्ठभूमि से जुड़ा हुआ रहा, गांव का साधारण निश्छल जीवन, सहयोग-भावना गांव की स्वयं की एक उपलब्धि है। गांव मेरी कविता का विषय होना संयोग नहीं अपितु मेरी जागृत अनुभूति है। गांव मेरी संस्कृति, जीवनशैली है। मैं और मेरी सोच गांव से दूर स्वयं को अधूरा मानती है, ग्रामीण जीवन मेरा आदर्श रहा। बचपन में माँ का साया सिर पर न होना, उस अभाव को जीना, मेरी कविता में माँ की प्राथमिकता का बोध कराता है। माँ के बिना जीवन कितना जटिल होता है, उसे वही भली-भांति जान सकता है जिसका बचपन, यौवन बिना माँ के ही गुजरा हो। पिता के प्रति समर्पण भी यही परिस्थिति कारण रही। समाज की विविधता में जीते हुए उसके हर स्वरूप से परिचित होना और जिन कुप्रथाओं को अन्य सभी देखते भर हैं, मेरा प्रयास उन्हें शब्द देकर मुखरित करना रहा है। मित्र का मूल्य एक सहृदय व्यक्ति भली-भांति जान सकता है! माता-पिता, मित्र, गांव मेरी रचनाओं के विषय रहने का मुख्य उद्देश्य उनके प्रति एक समर्पण भाव है! गुरु के प्रति कृतज्ञता मेरा स्वभाव रहा! जिन मित्रों के साथ बचपन, यौवन, प्रौढ़ावस्था के दिन गुजरे, उनका मेरे जीवन में एक विशेष स्थान आज भी है! किसी मित्र के चले जाने का वियोग जब असह्य रहा, मेरी कविता में अश्रु धारा बनकर निकल पड़ी- “मैं देख न सुन पाऊंगा क्यों अभी नहीं मिलने आते! मेरे जाने के बाद व्यर्थ होंगे सब नाते।” यह मेरी वेदना मेरी कविता में जी भर कर देखने को मिली है!

Ratings and reviews

5.0
2 reviews
mayur verma
March 24, 2025
Bahut sunder kitab
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B Bhushan Mishra
March 24, 2025
what a book must read
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About the author

साहित्य एवं कविता लेखन को लेकर मेरे मन में एक स्पंदन विद्यार्थी जीवन से ही रहा, जिसमें प्रमुख भूमिका संस्कृत विद्यालय सहारनपुर के परिवेश के साथ-साथ पितातुल्य मेरे अग्रज श्री ब्रजभूषण मिश्र जी का मार्गदर्शन विशेषतः रहा! छोटी-छोटी रचनाएं सामयिक विषयों पर लिखने की प्रेरणा विद्यालय में रहते हुए मिलती रही! संस्कृत विद्यालय सहारनपुर की सफलता का श्रेय आदरणीय गुरुश्रेष्ठ श्री पुरुषोत्तम झा जी को जाता है! मेरा जन्म विक्रम संवत् 2004 श्रावण शुक्ल सप्तमी तुलसी जयंती को एक छोटे-से गांव बाबैल बुजुर्ग, जनपद-सहारनपुर, उत्तर प्रदेश में स्वनामधन्य श्री पण्डित तुलसीराम जी प्रपितामह व्याकरणाचार्य, पण्डित श्री आशाराम जी पितामह, पण्डित श्री बालकृष्ण जी पिता के परिवार में हुआ। बचपन में ही माँ का वियोग सहना पड़ा, अढ़ाई वर्ष की आयु में ममतामयी माँ मुझे बुआ माँ की गोद में छोड़कर चली गईं। बुआ माँ ने लालन-पालन किया और संस्कार दिए, बुआ माँ के परिवार से मिले अपनत्व की प्रशंसा करने के लिए शब्द सामर्थ्य नहीं है! 1969 में मेरठ विश्वविद्यालय, (वर्तमान में चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ) से कला स्नातक प्रवीण शिक्षा के बाद विभिन्न संस्थानों में सम्मान पद भार संभालते हुए अन्ततः अपने व्यवसाय में लखनऊ को अपनी कर्मभूमि के रूप में स्वीकार किया!

बचपन से ही माँ का अभाव और गांव का रहन-सहन दोनों ही मेरी कविता के विषय के रूप में मुख्य रूप से बने रहे। विद्यार्थी जीवन से ही लिखने के अभ्यास को धार मिलती गयी और लेखनी चलती रही! व्यवसाय में रहते हुए भी समाज में घटित घटनाक्रम मुझसे अछूते नहीं रहे। उनसे प्रभावित होना एक सरल काव्य लेखक के लिए बहुत ही सहज है। लोग प्रभावित होते हुए भी अपनी प्रतिक्रिया खुलकर आगे नही बढ़ाते। मेरा प्रयास रहा कि उन सब अनकही बातों को कविता के माध्यम से सबके सामने ला सकूँ। इसी से प्रेरित होकर मैंने यह प्रयास किया है। अपने इसी मनोभाव को समाज तक पहुंचाना मेरा उद्देश्य रहा!



साहित्य एवं कविता लेखन को लेकर मेरे मन में एक स्पंदन विद्यार्थी जीवन से ही रहा, जिसमें प्रमुख भूमिका संस्कृत विद्यालय सहारनपुर के परिवेश के साथ-साथ पितातुल्य मेरे अग्रज श्री ब्रजभूषण मिश्र जी का मार्गदर्शन विशेषतः रहा! छोटी-छोटी रचनाएं सामयिक विषयों पर लिखने की प्रेरणा विद्यालय में रहते हुए मिलती रही! संस्कृत विद्यालय सहारनपुर की सफलता का श्रेय आदरणीय गुरुश्रेष्ठ श्री पुरुषोत्तम झा जी को जाता है! मेरा जन्म विक्रम संवत् 2004 श्रावण शुक्ल सप्तमी तुलसी जयंती को एक छोटे-से गांव बाबैल बुजुर्ग, जनपद-सहारनपुर, उत्तर प्रदेश में स्वनामधन्य श्री पण्डित तुलसीराम जी प्रपितामह व्याकरणाचार्य, पण्डित श्री आशाराम जी पितामह, पण्डित श्री बालकृष्ण जी पिता के परिवार में हुआ। बचपन में ही माँ का वियोग सहना पड़ा, अढ़ाई वर्ष की आयु में ममतामयी माँ मुझे बुआ माँ की गोद में छोड़कर चली गईं। बुआ माँ ने लालन-पालन किया और संस्कार दिए, बुआ माँ के परिवार से मिले अपनत्व की प्रशंसा करने के लिए शब्द सामर्थ्य नहीं है! 1969 में मेरठ विश्वविद्यालय, (वर्तमान में चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ) से कला स्नातक प्रवीण शिक्षा के बाद विभिन्न संस्थानों में सम्मान पद भार संभालते हुए अन्ततः अपने व्यवसाय में लखनऊ को अपनी कर्मभूमि के रूप में स्वीकार किया!

बचपन से ही माँ का अभाव और गांव का रहन-सहन दोनों ही मेरी कविता के विषय के रूप में मुख्य रूप से बने रहे। विद्यार्थी जीवन से ही लिखने के अभ्यास को धार मिलती गयी और लेखनी चलती रही! व्यवसाय में रहते हुए भी समाज में घटित घटनाक्रम मुझसे अछूते नहीं रहे। उनसे प्रभावित होना एक सरल काव्य लेखक के लिए बहुत ही सहज है। लोग प्रभावित होते हुए भी अपनी प्रतिक्रिया खुलकर आगे नही बढ़ाते। मेरा प्रयास रहा कि उन सब अनकही बातों को कविता के माध्यम से सबके सामने ला सकूँ। इसी से प्रेरित होकर मैंने यह प्रयास किया है। अपने इसी मनोभाव को समाज तक पहुंचाना मेरा उद्देश्य रहा!

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